क्या रंगकर्म कहा जा सकता है ? भारत के कस्बों गांवो में प्राचीन परंपरा रही है कि नाटक खेले जाते रहे है । रामलीला कृष्ण लीला । डाकू कि कहानी पर नाटक होते रहे है नौटंकी की शैली में नाटक होते रहे है। पर जब से आधुनिक रंगकर्म की शुरू वात हुई । रंगकर्म को यथार्थवादी दृष्टि से लिखा गया और उसे मंचित किया गया। तब दो बाते सामने आई । पहला यह कि रंगकर्म सिर्फ समाज का दर्पण नही है ।वह समाज का अंतर्दृष्टि रखने वाला दर्पण है । जैसे समाज जिस मेकअप को लगा रखा है या जिस मुखौटा का प्रयोग कर समाज के सामने जो उदाहरण प्रस्तुत करता है ।उस उदाहरण की वास्तविकता को परखता ठोकता बजाता है रंगकर्म । यह परखने ठोकने बजाने की जो अंतर्दृष्टि है यही रंग कर्म की आत्मा है चेतना है । सिर्फ नाटक करना ऐसे नाटक करना जिसमे सब कुछ पहले से ही तय है । वही राम वही रावण वही सीता का अपहरण वही हनुमान जी का अवतरण । इसमें आप वही करेंगे जो होता आ रहा है । आपको यह छुट नही है कि आप एक रत्ती भी हेर फेर कर सके । कुछ लोगो ने इस प्रयोग करने कि भरपुर कोशिश की पर उनको अपार जनसमूह का समर्थन प्राप्त नही हुआ । बहरहाल हम अपनी रंगचितन पर रंगचेतन पर...
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