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क्या रंगकर्म कहा जा सकता है ? भारत के कस्बों गांवो में प्राचीन परंपरा रही है कि नाटक खेले जाते रहे है । रामलीला कृष्ण लीला । डाकू कि कहानी पर नाटक होते रहे है नौटंकी की शैली में नाटक होते रहे है। पर जब से आधुनिक रंगकर्म की शुरू वात हुई । रंगकर्म को यथार्थवादी दृष्टि से लिखा गया और उसे मंचित किया गया। तब दो बाते सामने आई । पहला यह कि रंगकर्म सिर्फ समाज का दर्पण नही है ।वह समाज का अंतर्दृष्टि रखने वाला दर्पण है । जैसे समाज जिस मेकअप को लगा रखा है या जिस मुखौटा का प्रयोग कर समाज के सामने जो उदाहरण प्रस्तुत करता है ।उस उदाहरण की वास्तविकता को परखता ठोकता बजाता है रंगकर्म । यह परखने ठोकने बजाने की जो अंतर्दृष्टि है यही रंग कर्म की आत्मा है चेतना है । सिर्फ नाटक करना ऐसे नाटक करना जिसमे सब कुछ पहले से ही तय है । वही राम वही रावण वही सीता का अपहरण वही हनुमान जी का अवतरण । इसमें आप वही करेंगे जो होता आ रहा है । आपको यह छुट नही है कि आप एक रत्ती भी हेर फेर कर सके । कुछ लोगो ने इस प्रयोग करने कि भरपुर कोशिश की पर उनको अपार जनसमूह का समर्थन प्राप्त नही हुआ । बहरहाल हम अपनी रंगचितन पर रंगचेतन पर...

स्पर्श चिकित्सा (आलेख _ रवि कात मिश्र )

 स्पर्श का अर्थ अपनी सकारात्मक ऊर्जा को दूसरे पिंड में प्रवेश कर उसे सकारत्मक रूप से चार्ज कर देना । हम सभी के बचपन में यह घटना तो समान्य रही होगी कि जब हम किसी कारण वश नींद में डर जाते थे और चीख मार कर उठ जाते थे तो पहला शब्द मॉ मुख से निकलता था । फिर मॉ आती थी और सिर पर हाथ फेरती बोलती सो जा । और हम सो जाते थे । क्या था उस स्पर्श में??? एक विश्वास और प्रेम ही तो था । जो मां की उंगलियों से हथेली से निकल कर हमारे माथे को स्पर्श करता था और हमारे मन से डर को भगा देता था । स्पर्श की अपनी भाषा होती है जहां शब्दो की आवश्यकता नही है । पिता का स्पर्श। दीदी का स्पर्श, बडे भाई का स्पर्श , मित्र का स्पर्श, प्रेमी का स्पर्श , स्कूल टीचर का स्पर्श और सदगुरू स्वामी राम कृष्ण जी स्पर्श । कैसा अद्धभुत स्पर्श रहा होगा । जो नरेन्द्र,को नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित कर गया । मैं इस लेख में सकारात्मक स्पर्श की बात कर रहा हूं । वैसे स्पर्श नकारात्मक भी होता है जिसकी चर्चा यहा नही कि जा सकती है । आज सकारात्मक स्पर्श की बहुत आवश्यकता है । जिस तरह हमारे दैनिक जीवन में तनाव कुंठा का...

कलाकार की मौत

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 कलाकार हमारी व्यवस्था का हिस्सा होता है । व्यवस्था में हुए मूलभूत परिवर्तन का प्रभाव उसके जीवन पर पडता है । जहाॅ एक प्रतिक्रिया होती रहती है । कलाकार हमेशा एक मानसिक बौधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया से गुजरता है । उसकी अभिव्यक्ति में व्यवस्था का आंतरिक चित्रण होता है । प्रश्न यहां यह उठता है कि क्या कलाकार व्यवस्था के प्रभाव से मुक्त हो कर कोई ऐसी रचना कर सकता है ? क्या कलाकार अपनी कला को एक हथियार की तरह उपयोग कर व्यवस्था में व्याप्त असंतोष अन्याय शोषण पर प्रहार करता है ? कौन सी कला रिलेवन्ट होगी किस कला के साथ आम लोग जुड पायेंगे ? या कलाकार आम जनमानस के साथ उसकी भावना विचार के साथ जुड पायेगा ? उदाहरण के तौर पर एक ही काल में दो कलाकारो की अभिव्यक्ति को देखे । बकिमचंद की रचना आनंदमठ के गीत  बंदेमातरम  और रविन्द्रनाथ की रचना जण गण मन अधिनायक जय हे । दोनो में जनसमूह के हृदय के करीब कौन हो सकता है ? और किसे जनसमूह के करीब लाया गया। आज इस पर बहस हो सकती है । कलाकार को हमेशा से सत्ता के अधीन सत्ता के लिए सत्ता के अनुसार काम करने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है । पर आप देखेगे कि जो...
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 मध्य प्रदेश नाट्य विधालय की घटना ने भारत के सभी रंगकर्मियों का ध्यान अपनी ओर आकर्शित किया है । आठ छात्रों को विधालय निदेशक श्री आलोक चटर्जी ने निष्कासित कर दिया है । जो कारण बताये गये उसमे अनुशासन हीनता को आधार बनाया गया है । विधार्थी चार माह जो कोरना काल के कारण क्लास नही कर पाये ,उसकी मांग कर रहे थे । यह मांग कोरोना काल के कारण उत्पन्न हुई है । जो तर्कसंगत लगता है तो दूसरी तरफ यह कहा गया की जुलाई तक का वजीफा इन सभी छात्रों के बैक खाते में आ गया है । अब फिर से चार माह का क्लास तभी संभव हो पायेगा जब सरकार फिर से चार माह का वजीफा इन छात्रो को दे । जिसका कोई निर्देश सरकार से अभी तक विधालय को प्राप्त नही हुआ है । विधालय के निदेशक इस विषय पर राज्य सरकार से संवाद कर रहे है । परिणाम इस लेख के लिखते समय तक नही आया है । निष्कासित विधार्थियों का भविष्य और सम्मान दोनो दांव पर लगा हुआ है । कोरोना काल में मानव के मन में अवसाद का विकास तेजी से हो रहा है । भविष्य अंधेरे में है । इस घोर संवेदन शील काल में हम सभी को मानविये दृष्टिकोण को ध्यान में रख कर कोई भी निर्णय लेना चाहिये । निदेशक महोदय ...
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